धर्म एवं दर्शन >> हिंदू धर्म के सोलह संस्कार हिंदू धर्म के सोलह संस्कारसच्चिदानंद शुक्ल
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हिंदू धर्म के ये सोलह संस्कार मात्र कर्मकांड नहीं हैं,जिन्हें यों ही ढोया जा रहा है...
‘संस्कार’ या ‘संस्कृति’ संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है– मनुष्य का वह कर्म, जो अलंकृत और सुसज्जित हो। प्रकारांतर से संस्कृति शब्द का अर्थ
है–धर्म। संस्कृति और संस्कार में कोई अंतर नहीं है। दोनों का
एक ही अर्थ है, मात्र ‘इकार’ की मात्रा का अंतर है।
हिंदू धर्म में मुख्य रूप से सोलह संस्कार हैं, जो संस्कार मनुष्य की जाति
और अवस्था के अनुसार किए जानेवाले धर्म कार्यों की प्रतिष्ठा करते हैं।
हिंदू धर्म-दर्शन की संस्कृति यज्ञमय है, क्योंकि सृष्टि ही यज्ञ का परिणाम है, उसका अंत (मनुष्य की अंत्येष्टि) भी यज्ञमय है (शव को चितारूपी हवन कुंड में आहुति के रूप में हवन करना)। इस यज्ञमय क्रिया (संस्कार) में गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि क्रिया तक सभी कृत्य (संस्कार) यज्ञमय संस्कार के रूप में जाने और माने जाते हैं।
हिंदू धर्म के ये सोलह संस्कार मात्र कर्मकांड नहीं है, जिन्हें यों ही ढोया जा रहा है अपितु पूर्णतः वैज्ञानिक एवं तथ्यपरक हैं। उनमें से कुछ का तो देश-काल-परिस्थिति के कारण लोप हो गया है और कुछ का एक से अधिक संस्कारों में समावेश, कुछ का अब भी प्रचलन है और कुछ प्रतीक मात्र रह गए हैं, जबकि सभी सोलह संस्कारों को करना प्रत्येक हिंदू के लिए आवश्यक है।
प्रस्तुत पुस्तक में सरल-सुबोध भाषा में इन्हीं संस्कारों के औचित्य को बताया गया है। विश्वास है सुधी पाठक इस पुस्तक के माध्यम से अपनी भुलाई हुई विरासत से जुड़कर लाभान्वित होंगे।
हिंदू धर्म-दर्शन की संस्कृति यज्ञमय है, क्योंकि सृष्टि ही यज्ञ का परिणाम है, उसका अंत (मनुष्य की अंत्येष्टि) भी यज्ञमय है (शव को चितारूपी हवन कुंड में आहुति के रूप में हवन करना)। इस यज्ञमय क्रिया (संस्कार) में गर्भाधान से लेकर अंत्येष्टि क्रिया तक सभी कृत्य (संस्कार) यज्ञमय संस्कार के रूप में जाने और माने जाते हैं।
हिंदू धर्म के ये सोलह संस्कार मात्र कर्मकांड नहीं है, जिन्हें यों ही ढोया जा रहा है अपितु पूर्णतः वैज्ञानिक एवं तथ्यपरक हैं। उनमें से कुछ का तो देश-काल-परिस्थिति के कारण लोप हो गया है और कुछ का एक से अधिक संस्कारों में समावेश, कुछ का अब भी प्रचलन है और कुछ प्रतीक मात्र रह गए हैं, जबकि सभी सोलह संस्कारों को करना प्रत्येक हिंदू के लिए आवश्यक है।
प्रस्तुत पुस्तक में सरल-सुबोध भाषा में इन्हीं संस्कारों के औचित्य को बताया गया है। विश्वास है सुधी पाठक इस पुस्तक के माध्यम से अपनी भुलाई हुई विरासत से जुड़कर लाभान्वित होंगे।
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संस्कार किसे कहते हैं ? अर्थ व परिभाषा
‘संस्कार’ शब्द का दूसरी भाषाओं में ज्यों का-त्यों
(यथातथ्य) अनुवाद करना असंभव है। अंग्रेजी भाषा के
‘सिरीमॉनी’ (Ceremony) और लैटिन भाषा के सेरीमोनिया
(Caerimonia) शब्दों में ‘संस्कार’ शब्द का निर्वहन
उसका अर्थ व्यक्त करने की क्षमता नहीं है। इसकी अपेक्षा सिरीमॉनी शब्द का
प्रयोग संस्कृत ‘कर्म’ अथवा सामान्य रूप से धार्मिक
क्रियाओं के लिए अधिक उपयुक्त है।’’ (हिंदी संस्कार,
डॉ० राजबली पांडेय)
‘संस्कार’ का तात्पर्य निरी बाह्य धार्मिक क्रियाओं, अनुशासित अनुष्ठान, अर्थ आडंबर, कोरा कर्मकांड, राज्य द्वारा निर्दिष्ट चलन, औपचारिकताओं तथा अनुशासित व्यवहार से नहीं है, जैसा कि साधारणतः समझा जाता है और न उसका अभिप्राय उन विधि-विधानों तथा कर्मकांडों सें ही है, जिनसे हम विधि का स्वरूप, धार्मिक कृत्य अथवा अनुष्ठान के लिए आवश्यक या सामान्य क्रिया अथवा किसी चर्च के विशिष्ट चलनों (परंपरा) के अर्थ में लेते हैं।
‘संस्कार’ शब्द का अधिक उपयुक्त पर्याय अंग्रेजी का ‘सेक्रामेंट’ शब्द है, जिसका अर्थ है–धार्मिक विधि-विधान अथवा कृत्य, जो आंतरिक व आत्मिक सौंदर्य का बाह्य तथा दृश्य प्रतीक माना जाता है और जिसका व्यवहार प्राच्य, प्राक्-सुधार कालीन पाश्चात्य तथा रोमन कैथोलिक चर्च ‘बपतिस्मा’, संपुष्टि (कन्फर्मेशन), यूखारिस्त, व्रत (पीनांस, अभ्यंजन (एक्सट्रीम अंक्शन), आदेश तथा विवाह के सात कृत्य के लिए करते थे। सेक्रामेंट (Sacrament) शब्द का अर्थ किसी वचन अथवा प्रतिमा की पुष्टि, रहस्यपूर्ण महत्त्व की वस्तु, पवित्र प्रभाव भी है। (ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी) इस प्रकार ‘सेक्रामेंट’ शब्द अनेक अन्य धार्मिक क्षेत्रों में भी व्याप्त कर लेता है, जो संस्कृत साहित्य में शुद्धि, प्रायश्चित्त, व्रत आदि शब्दों के अंतर्गत आते हैं।
संस्कृत भाषा में ‘संस्कार’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की सम् पूर्वक ‘कृञ्’ धातु से ‘घञ्’ प्रत्यय करके की गई है। (सम्+कृ+घञ्=संस्कार) और इसका प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। मीमांसक इसका आशय यज्ञांगभूत पुरोडाश आदि की विधिवत् शुद्धि से समझते हैं–प्रोक्षणादिजन्यसंस्कारों यज्ञांगपुरोडाशेष्विति द्रव्यधर्मः। (वाचस्पत्य वृहदभिधान, 5, पृष्ठ 5188)। अद्वैतवेदांती जीव पर शारीरिक, क्रियाओं के मिध्या आरोप को संस्कार मानते हैं–‘स्नानाचमनादिजन्याः संस्कारा देहे उत्पद्यमानानि तदभिधानानि जीवे कल्प्यन्ते।’ (वही)
नैय्यायिक भावों को व्यक्ति करने की आत्मव्यंजक शक्ति को संस्कार समझते हैं, जिसका परिगणन वैशेषिक दर्शन में चौबीस गुणों के अंतर्गत किया गया है। इसके अंतर्गत किया गया है। इसके अतिरिक्त संस्कृत साहित्य में ‘संस्कार’ शब्द का प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण (निसर्गसंस्कार विनीत इत्यसौ नृपेण चक्रे युवराज शब्दभाक्–रघुवंश, 3,35); सौजन्य, पूर्णता, व्याकरण संबंधी शुद्धि–‘संस्कारवत्येव गिरा मनीषी तया स पूतश्च विभूषितश्च।’ (कुमारसंभव, 1,28); संस्करण, परिष्करण–‘प्रयुक्त संस्कार इवाधिकं बभौ’ (रघुवंश, 3,18); शोभा, आभूषण–‘स्वभाव सुन्दरं वस्तु न संस्कारमपेक्षणे।’ (शाकुंतल, 7,33); प्रस्ताव, स्वरूप, स्वभाव, क्रिया, छाप–‘यन्नवे भाजनेय लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत्।’ (हितोपदेश 1,8); स्मरणशक्ति, स्मरणशक्ति पर पड़नेवाला प्रभाव– ‘संस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृतिः।’ (तर्कसंग्रह); शुद्धि क्रिया, धार्मिक विधि-विधान–‘कार्यः शरीर-संस्कार पावनः प्रेत्य चेह च’ (मनुस्मृति, 2,27); अभिषेक, विचार, भावना, धारणा, कार्य का परिणाम, क्रिया की विशेषता–‘फलानमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्तना इव।’ (रघुवंश, 1,20) आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘संस्कार’ शब्द के साथ विलक्षण अर्थों का योग हो गया है, जो इसके दीर्घ इतिहास-क्रम इसके साथ संयुक्त हो गए हैं। इसका अभिप्राय शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं तथा व्यक्ति के दैहिक, मानसिक और बौद्धिक परिष्कार के लिए किए जानेवाले अनुष्ठानों में से है, जिनसे वह समाज का पूर्ण विकसित सदस्य बन सके। किंतु हिंदू संस्कारों में अनेक आरंभिक विचार, धार्मिक विधि-विधान, उनके सहवर्ती नियम तथा अनुष्ठान भी समाविष्ट हैं, जिनका उद्देश्य मात्र औपचारिक दैहिक संस्कार ही न होकर संस्कारित व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व का परिष्कार, शुद्धि और पूर्णता भी है।
इससे यह समझा जाता है कि सविधि-संस्कारों के अनुष्ठान से संस्कारित व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीय गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है–आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योऽतिशयविशेषः संस्कारः। (वीरमित्रोदय, संस्कारभाष्य, पृष्ठ 132)
संस्कृति की भूमि पर ‘संस्कार’ आधारित है। ‘संस्कार’ ही हिंदू धर्म या संस्कृति के जन्म और उत्कर्ष का कारण एवं साधन हैं। इस दृष्टि से प्रत्येक हिंदू के लिए संस्कृति की आधारृ-भूमि और व्यक्ति तथा समाज का विकास करनेवाले संस्कारों की विधिवत् जानकारी होना आवश्यक है।
संस्कार का सामान्य अर्थ है–संस्कृत करना या शुद्ध करना, उपयुक्त बनाना या सम्यक् करना आदि। किसी साधारण या विकृत वस्तु को विशेष क्रियाओं द्वारा उत्तम बना देना ही उसका संस्कार है। इस साधारण मनुष्य जीवत को विशेष प्रकार की धार्मिक क्रियाओं-प्रक्रियाओं द्वारा उत्तम बनाया जा सकता है, जिससे कि वह जीवन में परम उत्कर्ष को प्राप्त कर सके। ये विशिष्ट धार्मिक प्रक्रियाएँ ही ‘संस्कार’ हैं।
जिस प्रकार खान से सोना हीरा आदि निकलने पर उसमें चमक, प्रकाश तथा सौंदर्य के लिए उसे तपाशकर, तराशकर उसका मल हटाना एवं चिकना करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार मनुष्य में मानवीय शक्ति का आधान होने के लिए उसे सुसंस्कृत अर्थात् संस्कारवान् बनाने के लिए उसका पूर्णतः विधिवत् संस्कार-संपन्न करना आवश्यक है। विधिपूर्वक संस्कार-साधन से दिव्य ज्ञान उत्पन्न करके आत्मा को परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित करना ही ‘संस्कार’ है और मानव जीवन प्राप्त करने की सार्थकता भी इसी में है।
‘संस्कार’ मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त करते हैं। संस्कारों की आत्मा की शुद्धि होती है, विचार व कर्म शुद्ध होते हैं। इसीलिए ‘संस्कारों’ की आवश्यकता है। ‘संस्कार’ मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं–(1) मलापनयन, (2) अतिशयाधान और (3) न्यूनांगपूरक। (1) मलापनयन–किसी दर्पण आदि पर पड़ी हुए धूल आदि सामान्य मल (गंदगी) को कपड़े आदि से पोंछना-हटाना या स्वच्छ करना ‘मलापनयन’ कहलाता है।
(2) अतिशयाधान–किसी रंग या तेजोमय पदार्थ द्वारा उसी दर्पण को विशेष रूप से प्रकाशमय बनाना या चमकाना ‘अतिशयाधान’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में इसे भावना, प्रतियत्न या गुणाधान-संस्कार भी कहा जाता है।
(3) न्यूनांगपूरक–अनाज के भोज्य पदार्थ बन जाने पर दाल, शाक, घृत आदि वस्तुएँ अलग से लाकर मिलाई जाती हैं। उसके (अनाज के) हीन (कमीवाले) अंगों की पूर्ति की जाती हैं, जिससे वह अनाज (अन्न) रुचिकर और पौष्टिक बन सके। इसे तृतीय संस्कार को न्यूनांगपूरक संस्कार कहते हैं।
अतः गर्भस्थ शिशु से लेकर मृत्युपर्यंत जीव के मलों का शोधन, सफाई आदि कार्य विशिष्ट विधिक क्रियाओं व मंत्रों से करने को ‘संस्कार’ कहा जाता है।
मनुष्य के जीवन के तीन मुख्य आधार माने गए हैं–(1) उसकी चेतना शक्ति, जिससे जीवन मिलता है। शरीर में स्थित इसे ही ‘आत्मा’ कहा जाता है। यह आत्मा विश्वव्यापी परम चेतना शक्ति ‘परमात्मा’ का ही एक अंश है, जो आत्मा से भिन्न न होने हुए भी मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि के कारण भिन्न प्रतीत होने लगता है। इसी कारण इसे ‘जीवात्मा’ या ‘जीव’ कहा जाता है। यही चेतना-शक्ति वनस्पति से लेकर मनुष्य तक सभी के जीवन का आधार है। मनुष्य में इस चेतना का सर्वाधिक विकास हुआ है, इसीलिए यह प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहलाता है।
मनुष्य का दूसरा बड़ा आधार उसका ‘मन’ है। ‘मन’ इसी चेतना-शक्ति की एक विशेष रचना है, जो चेतना-शक्ति से सक्रिय होकर मनुष्य के सभी कर्मों का कारण बनता है। अतः मनुष्यकृत कर्मों का कारण चेतना-शक्ति (आत्मा) नहीं, अपितु ‘मन’ ही है। मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे सभी कर्म ‘मन’ से ही करता है। बार-बार कर्म करने से वे ही कर्म उसकी आदतें बन जाती हैं। ये आदतें (स्वभाव) ही बीज रूप में उसके मन के गहरे स्तर पर जमा होती रहती हैं, जो मृत्यु के पश्चात् ‘मन’ के साथ ही सूक्ष्म शरीर में बनी रहती है और नया जन्म, नया शरीर धारण करने पर अगले जन्म में भी पिछले जन्मों के अनुसार उसी प्रकार के कर्म करने की प्रेरणा बन जाती हैं। इसे ही ‘संस्कार’ कहा जाता है।
ये ‘संस्कार’ ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे ‘संचित कर्म’ कहते हैं। इन संचित कर्मों का कुछ भाग एक जीवन में भोगने के लिए उपस्थित रहता है और यही जीवन प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है। फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
हिंदू दर्शन के अनुसार, मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियाँ भी इन पर प्रभाव डालती हैं।
‘संस्कार’ का तात्पर्य निरी बाह्य धार्मिक क्रियाओं, अनुशासित अनुष्ठान, अर्थ आडंबर, कोरा कर्मकांड, राज्य द्वारा निर्दिष्ट चलन, औपचारिकताओं तथा अनुशासित व्यवहार से नहीं है, जैसा कि साधारणतः समझा जाता है और न उसका अभिप्राय उन विधि-विधानों तथा कर्मकांडों सें ही है, जिनसे हम विधि का स्वरूप, धार्मिक कृत्य अथवा अनुष्ठान के लिए आवश्यक या सामान्य क्रिया अथवा किसी चर्च के विशिष्ट चलनों (परंपरा) के अर्थ में लेते हैं।
‘संस्कार’ शब्द का अधिक उपयुक्त पर्याय अंग्रेजी का ‘सेक्रामेंट’ शब्द है, जिसका अर्थ है–धार्मिक विधि-विधान अथवा कृत्य, जो आंतरिक व आत्मिक सौंदर्य का बाह्य तथा दृश्य प्रतीक माना जाता है और जिसका व्यवहार प्राच्य, प्राक्-सुधार कालीन पाश्चात्य तथा रोमन कैथोलिक चर्च ‘बपतिस्मा’, संपुष्टि (कन्फर्मेशन), यूखारिस्त, व्रत (पीनांस, अभ्यंजन (एक्सट्रीम अंक्शन), आदेश तथा विवाह के सात कृत्य के लिए करते थे। सेक्रामेंट (Sacrament) शब्द का अर्थ किसी वचन अथवा प्रतिमा की पुष्टि, रहस्यपूर्ण महत्त्व की वस्तु, पवित्र प्रभाव भी है। (ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी) इस प्रकार ‘सेक्रामेंट’ शब्द अनेक अन्य धार्मिक क्षेत्रों में भी व्याप्त कर लेता है, जो संस्कृत साहित्य में शुद्धि, प्रायश्चित्त, व्रत आदि शब्दों के अंतर्गत आते हैं।
संस्कृत भाषा में ‘संस्कार’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत की सम् पूर्वक ‘कृञ्’ धातु से ‘घञ्’ प्रत्यय करके की गई है। (सम्+कृ+घञ्=संस्कार) और इसका प्रयोग अनेक अर्थों में किया जाता है। मीमांसक इसका आशय यज्ञांगभूत पुरोडाश आदि की विधिवत् शुद्धि से समझते हैं–प्रोक्षणादिजन्यसंस्कारों यज्ञांगपुरोडाशेष्विति द्रव्यधर्मः। (वाचस्पत्य वृहदभिधान, 5, पृष्ठ 5188)। अद्वैतवेदांती जीव पर शारीरिक, क्रियाओं के मिध्या आरोप को संस्कार मानते हैं–‘स्नानाचमनादिजन्याः संस्कारा देहे उत्पद्यमानानि तदभिधानानि जीवे कल्प्यन्ते।’ (वही)
नैय्यायिक भावों को व्यक्ति करने की आत्मव्यंजक शक्ति को संस्कार समझते हैं, जिसका परिगणन वैशेषिक दर्शन में चौबीस गुणों के अंतर्गत किया गया है। इसके अंतर्गत किया गया है। इसके अतिरिक्त संस्कृत साहित्य में ‘संस्कार’ शब्द का प्रयोग शिक्षा, संस्कृति, प्रशिक्षण (निसर्गसंस्कार विनीत इत्यसौ नृपेण चक्रे युवराज शब्दभाक्–रघुवंश, 3,35); सौजन्य, पूर्णता, व्याकरण संबंधी शुद्धि–‘संस्कारवत्येव गिरा मनीषी तया स पूतश्च विभूषितश्च।’ (कुमारसंभव, 1,28); संस्करण, परिष्करण–‘प्रयुक्त संस्कार इवाधिकं बभौ’ (रघुवंश, 3,18); शोभा, आभूषण–‘स्वभाव सुन्दरं वस्तु न संस्कारमपेक्षणे।’ (शाकुंतल, 7,33); प्रस्ताव, स्वरूप, स्वभाव, क्रिया, छाप–‘यन्नवे भाजनेय लग्नः संस्कारो नान्यथा भवेत्।’ (हितोपदेश 1,8); स्मरणशक्ति, स्मरणशक्ति पर पड़नेवाला प्रभाव– ‘संस्कारजन्यं ज्ञानं स्मृतिः।’ (तर्कसंग्रह); शुद्धि क्रिया, धार्मिक विधि-विधान–‘कार्यः शरीर-संस्कार पावनः प्रेत्य चेह च’ (मनुस्मृति, 2,27); अभिषेक, विचार, भावना, धारणा, कार्य का परिणाम, क्रिया की विशेषता–‘फलानमेयाः प्रारम्भाः संस्काराः प्राक्तना इव।’ (रघुवंश, 1,20) आदि अर्थों में प्रयुक्त हुआ है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि ‘संस्कार’ शब्द के साथ विलक्षण अर्थों का योग हो गया है, जो इसके दीर्घ इतिहास-क्रम इसके साथ संयुक्त हो गए हैं। इसका अभिप्राय शुद्धि की धार्मिक क्रियाओं तथा व्यक्ति के दैहिक, मानसिक और बौद्धिक परिष्कार के लिए किए जानेवाले अनुष्ठानों में से है, जिनसे वह समाज का पूर्ण विकसित सदस्य बन सके। किंतु हिंदू संस्कारों में अनेक आरंभिक विचार, धार्मिक विधि-विधान, उनके सहवर्ती नियम तथा अनुष्ठान भी समाविष्ट हैं, जिनका उद्देश्य मात्र औपचारिक दैहिक संस्कार ही न होकर संस्कारित व्यक्ति के संपूर्ण व्यक्तित्व का परिष्कार, शुद्धि और पूर्णता भी है।
इससे यह समझा जाता है कि सविधि-संस्कारों के अनुष्ठान से संस्कारित व्यक्ति में विलक्षण तथा अवर्णनीय गुणों का प्रादुर्भाव हो जाता है–आत्मशरीरान्यतरनिष्ठो विहितक्रियाजन्योऽतिशयविशेषः संस्कारः। (वीरमित्रोदय, संस्कारभाष्य, पृष्ठ 132)
संस्कृति की भूमि पर ‘संस्कार’ आधारित है। ‘संस्कार’ ही हिंदू धर्म या संस्कृति के जन्म और उत्कर्ष का कारण एवं साधन हैं। इस दृष्टि से प्रत्येक हिंदू के लिए संस्कृति की आधारृ-भूमि और व्यक्ति तथा समाज का विकास करनेवाले संस्कारों की विधिवत् जानकारी होना आवश्यक है।
संस्कार का सामान्य अर्थ है–संस्कृत करना या शुद्ध करना, उपयुक्त बनाना या सम्यक् करना आदि। किसी साधारण या विकृत वस्तु को विशेष क्रियाओं द्वारा उत्तम बना देना ही उसका संस्कार है। इस साधारण मनुष्य जीवत को विशेष प्रकार की धार्मिक क्रियाओं-प्रक्रियाओं द्वारा उत्तम बनाया जा सकता है, जिससे कि वह जीवन में परम उत्कर्ष को प्राप्त कर सके। ये विशिष्ट धार्मिक प्रक्रियाएँ ही ‘संस्कार’ हैं।
जिस प्रकार खान से सोना हीरा आदि निकलने पर उसमें चमक, प्रकाश तथा सौंदर्य के लिए उसे तपाशकर, तराशकर उसका मल हटाना एवं चिकना करना आवश्यक होता है, उसी प्रकार मनुष्य में मानवीय शक्ति का आधान होने के लिए उसे सुसंस्कृत अर्थात् संस्कारवान् बनाने के लिए उसका पूर्णतः विधिवत् संस्कार-संपन्न करना आवश्यक है। विधिपूर्वक संस्कार-साधन से दिव्य ज्ञान उत्पन्न करके आत्मा को परमात्मा के रूप में प्रतिष्ठित करना ही ‘संस्कार’ है और मानव जीवन प्राप्त करने की सार्थकता भी इसी में है।
‘संस्कार’ मनुष्य को पाप और अज्ञान से दूर रखकर आचार-विचार और ज्ञान-विज्ञान से संयुक्त करते हैं। संस्कारों की आत्मा की शुद्धि होती है, विचार व कर्म शुद्ध होते हैं। इसीलिए ‘संस्कारों’ की आवश्यकता है। ‘संस्कार’ मुख्यतः तीन प्रकार के होते हैं–(1) मलापनयन, (2) अतिशयाधान और (3) न्यूनांगपूरक। (1) मलापनयन–किसी दर्पण आदि पर पड़ी हुए धूल आदि सामान्य मल (गंदगी) को कपड़े आदि से पोंछना-हटाना या स्वच्छ करना ‘मलापनयन’ कहलाता है।
(2) अतिशयाधान–किसी रंग या तेजोमय पदार्थ द्वारा उसी दर्पण को विशेष रूप से प्रकाशमय बनाना या चमकाना ‘अतिशयाधान’ कहलाता है। दूसरे शब्दों में इसे भावना, प्रतियत्न या गुणाधान-संस्कार भी कहा जाता है।
(3) न्यूनांगपूरक–अनाज के भोज्य पदार्थ बन जाने पर दाल, शाक, घृत आदि वस्तुएँ अलग से लाकर मिलाई जाती हैं। उसके (अनाज के) हीन (कमीवाले) अंगों की पूर्ति की जाती हैं, जिससे वह अनाज (अन्न) रुचिकर और पौष्टिक बन सके। इसे तृतीय संस्कार को न्यूनांगपूरक संस्कार कहते हैं।
अतः गर्भस्थ शिशु से लेकर मृत्युपर्यंत जीव के मलों का शोधन, सफाई आदि कार्य विशिष्ट विधिक क्रियाओं व मंत्रों से करने को ‘संस्कार’ कहा जाता है।
मनुष्य के जीवन के तीन मुख्य आधार माने गए हैं–(1) उसकी चेतना शक्ति, जिससे जीवन मिलता है। शरीर में स्थित इसे ही ‘आत्मा’ कहा जाता है। यह आत्मा विश्वव्यापी परम चेतना शक्ति ‘परमात्मा’ का ही एक अंश है, जो आत्मा से भिन्न न होने हुए भी मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार आदि के कारण भिन्न प्रतीत होने लगता है। इसी कारण इसे ‘जीवात्मा’ या ‘जीव’ कहा जाता है। यही चेतना-शक्ति वनस्पति से लेकर मनुष्य तक सभी के जीवन का आधार है। मनुष्य में इस चेतना का सर्वाधिक विकास हुआ है, इसीलिए यह प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ कहलाता है।
मनुष्य का दूसरा बड़ा आधार उसका ‘मन’ है। ‘मन’ इसी चेतना-शक्ति की एक विशेष रचना है, जो चेतना-शक्ति से सक्रिय होकर मनुष्य के सभी कर्मों का कारण बनता है। अतः मनुष्यकृत कर्मों का कारण चेतना-शक्ति (आत्मा) नहीं, अपितु ‘मन’ ही है। मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे सभी कर्म ‘मन’ से ही करता है। बार-बार कर्म करने से वे ही कर्म उसकी आदतें बन जाती हैं। ये आदतें (स्वभाव) ही बीज रूप में उसके मन के गहरे स्तर पर जमा होती रहती हैं, जो मृत्यु के पश्चात् ‘मन’ के साथ ही सूक्ष्म शरीर में बनी रहती है और नया जन्म, नया शरीर धारण करने पर अगले जन्म में भी पिछले जन्मों के अनुसार उसी प्रकार के कर्म करने की प्रेरणा बन जाती हैं। इसे ही ‘संस्कार’ कहा जाता है।
ये ‘संस्कार’ ही प्रत्येक जन्म में संगृहीत (एकत्र) होते चले जाते हैं, जिससे कर्मों (अच्छे-बुरे दोनों) का एक विशाल भंडार बनता जाता है। इसे ‘संचित कर्म’ कहते हैं। इन संचित कर्मों का कुछ भाग एक जीवन में भोगने के लिए उपस्थित रहता है और यही जीवन प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में प्रेरणा का कार्य करता है। अच्छे-बुरे संस्कार होने के कारण मनुष्य अपने जीवन में अच्छे-बुरे कर्म करता है। फिर इन कर्मों से अच्छे-बुरे नए संस्कार बनते रहते हैं तथा इन संस्कारों की एक अंतहीन श्रृंखला बनती चली जाती है, जिससे मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है।
हिंदू दर्शन के अनुसार, मृत्यु के बाद मात्र यह भौतिक शरीर या देह ही नष्ट होती है, जबकि सूक्ष्म शरीर जन्म-जन्मांतरों तक आत्मा के साथ संयुक्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर ही जन्म-जन्मांतरों के शुभ-अशुभ संस्कारों का वाहक होता है। ये संस्कार मनुष्य के पूर्वजन्मों से ही नहीं आते, अपितु माता-पिता के संस्कार भी रज और वीर्य के माध्यम से उसमें (सूक्ष्म शरीर में) प्रविष्ट होते हैं, जिससे मनुष्य का व्यक्तित्व इन दोनों से ही प्रभावित होता है। बालक के गर्भधारण की परिस्थितियाँ भी इन पर प्रभाव डालती हैं।
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लोगों की राय
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